Friday 29 December 2017

आस का आँचल

212   2212   2212 

कौन-सा आँगन जहाँ  पर ग़म नहीं  
आस का आँचल मगर कुछ कम नहीं

रूठकर आँसू बहाना छोड़ दो
दर्द का बेइन्तहा आलम नहीं
 
क्या कहें ये ज़ख्म ताज़ा क्यों रहे 
पालते नासूर फिर मरहम नहीं

मौज दरिया की समन्दर से मिली
उम्र भर की वह रवानी कम नहीं

राख में क्यों भूनते हो तल्खियाँ
आज जलवागर अँगारे कम नहीं
 
कब मुकम्मल कुछ मिला इस दौड़ में
मत समझना अब किसी में दम नहीं

चाँदनी का नूर भी दिलक़श बहुत
बीत जाए दोपहर कुछ ग़म नहीं
 
तुम  मिले तो आज फिर अच्छा लगा
लोग तो मिलते रहे महरम नहीं           

                                  कैलाश नीहारिका



                  

2 comments: