Saturday 30 December 2017

कविता की बात

उन्होंने कहा / कर्म से बदलेगी दुनिया / कविता से नहीं
मैंने खोजबीन की / कर्मवीर से मिली / देखा उसका कर्म
बातचीत की / चकित रह गई
बातें उसकी कविता ही थीं !

                           कैलाश नीहारिका    

Friday 29 December 2017

आस का आँचल

212   2212   2212 

कौन-सा आँगन जहाँ  पर ग़म नहीं  
आस का आँचल मगर कुछ कम नहीं

रूठकर आँसू बहाना छोड़ दो
दर्द का बेइन्तहा आलम नहीं
 
क्या कहें ये ज़ख्म ताज़ा क्यों रहे 
पालते नासूर फिर मरहम नहीं

मौज दरिया की समन्दर से मिली
उम्र भर की वह रवानी कम नहीं

राख में क्यों भूनते हो तल्खियाँ
आज जलवागर अँगारे कम नहीं
 
कब मुकम्मल कुछ मिला इस दौड़ में
मत समझना अब किसी में दम नहीं

चाँदनी का नूर भी दिलक़श बहुत
बीत जाए दोपहर कुछ ग़म नहीं
 
तुम  मिले तो आज फिर अच्छा लगा
लोग तो मिलते रहे महरम नहीं           

                                  कैलाश नीहारिका



                  

सुर्ख़ियों में दिखते हो

 
आज भी सुर्ख़ियों में दिखते हो
इश्तहारों भरे हो बिकते हो

बैठकों में सजाई जलधारा
बैठ दरिया किनारे लिखते हो

थोक में बिक रहे हैं शंख यहाँ
फूँकते हो कभी या डरते हो

आजकल फूल पौधे बिकते हैं 
 ख़ूब बगिया सँभाले खिलते हो
 
इश्क़ में साथ-भर रहना मुश्किल
 फुरसती  शौक कितने रखते हो

आदमी आदमी से दूर हुआ
 जान- पहचान का दम भरते हो            

बेगुनाही सिसकती सदमे में 
 किसलिए हाथ जोड़े दिखते हो      

            कैलाश नीहारिका 

Thursday 21 December 2017

अनन्य प्रेम


किसी एक से ही
प्रेम करती हूँ
अनन्य प्रेम
पर स्तब्ध हूँ कि 
थोड़ा-थोड़ा सबमें है वह ! 

         कैलाश नीहारिका 

Monday 11 December 2017

कौन साथी है

  212  212  1222

आज बेग़र्ज़ कौन साथी है
धर्म की बात ही लजाती है

नफरतों के उजाड़ जंगल में
प्रेम की पौध सूख जाती है

हौसलों में बहुत दरारें हैं          
ईंट-दर-ईंट थरथराती है
 
दूर तट से उछल गिरी बूँदें 
कब लहर लौटकर बुलाती है

रात बीते अजीब सपनों में 
फिर हक़ीकत सुबह जगाती है

बाँचती रह गईं थकी आँखें 
अश्क़ में पीर कसमसाती है 

          कैलाश नीहारिका 

Saturday 9 December 2017

तेरे मेरे बीच

    2122    222      2221
    
इक तबस्सुम है तेरे-मेरे बीच
राह रौशन है तेरे-मेरे बीच

हमख़याली जब भी रचती है कशिश 
इक सुकूं रहता तेरे-मेरे बीच

बारहा लोग बढ़ा देते हैं बात
गुफ़्तगू चलती तेरे-मेरे बीच

शाम-भर धीमी बतकहियों का सबब        
रंग लाया है तेरे-मेरे बीच

दूर होते ही सब लगता बेकशिश  
ये  नया मसला तेरे-मेरे बीच

साथ चलने को  हूँ बेशक  मौजूद
हौसला-भर है तेरे-मेरे बीच 

                   कैलाश नीहारिका 

Wednesday 6 December 2017

निशाने पे


जाने कब कौन हो निशाने पे
किसको राहत मिली ज़माने से

वे चुप थे देर तक बिना सोचे
जिसने सोचा कहा ज़माने से

बनके अहसास साथ जो रहता
उसको मुद्दत लगे भुलाने में 
 
हमने चाहा कहीं  ख़ुशी बोएं
अरसा बीता शिला हटाने में
 
जिसने पाई खुशी गले मिलकर
उसकी चाहत दिखी निशाने पे

जिसके दिन-रात जगमगाते थे 
उसका आसन हिला हिलाने से 
 
तेरा होना जिसे समझ आया        
कब वो तन्हा रहा ज़माने में

                 कैलाश नीहारिका




Friday 1 December 2017

बेहुनर हाथ

 
बेहुनर हाथ किसी काबिल बना लूँ तो चलूँ
आस की  डोर हथेली में  थमा दूँ तो चलूँ

मोड़ दर मोड़ मिलेंगे राह भूले चेहरे
ठेठ पहचान निगाहों में बसा लूँ तो चलूँ                    

रात-भर नींद करेगी बेवफ़ा-सी बतकही 
जश्न की साँझ अँधेरों से बचा लूँ तो चलूँ

पाँव नाज़ुक उलझ गए कंकरीली राह से 
अजनबी राह अभी अपनी बना लूँ तो चलूँ 

रोज़ क्या साथ रहेंगे फुरसतों के सिलसिले
धूल में लीन हुए लम्हे  उठा लूँ तो चलूँ

                             कैलाश नीहारिका