आज भी सुर्ख़ियों में दिखते हो
इश्तहारों भरे हो बिकते हो
बैठकों में सजाई जलधारा
बैठ दरिया किनारे लिखते हो
थोक में बिक रहे हैं शंख यहाँ
फूँकते हो कभी या डरते हो
आजकल फूल पौधे बिकते हैं
ख़ूब बगिया सँभाले खिलते हो
इश्क़ में साथ-भर रहना मुश्किल
फुरसती शौक कितने रखते हो
आदमी आदमी से दूर हुआ
जान- पहचान का दम भरते हो
बेगुनाही सिसकती सदमे में
किसलिए हाथ जोड़े दिखते हो
कैलाश नीहारिका
थोक में बिक रहे हैं शंख यहाँ
फूँकते हो कभी या डरते हो
आजकल फूल पौधे बिकते हैं
ख़ूब बगिया सँभाले खिलते हो
इश्क़ में साथ-भर रहना मुश्किल
फुरसती शौक कितने रखते हो
आदमी आदमी से दूर हुआ
जान- पहचान का दम भरते हो
बेगुनाही सिसकती सदमे में
किसलिए हाथ जोड़े दिखते हो
कैलाश नीहारिका
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ख़ुशी की कविता या कुछ और?“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteलाजवाब...प्रणाम
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 3 जनवरी2018 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteमुकम्मल गज़ल
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteउम्दा ।
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