Monday 7 April 2014

भविष्य की कविता / विचार-मंथन

भविष्य की कविता किधर की राह लेगी ,यह चिन्ता / चिन्तन होना स्वाभाविक है। हम घरों-दफ्तरों से उठते हैं ,मॉल्स में पहुँच जाते हैं, खा-पीकर भारी थैलों से लदे-फदे एक्सेलेटर या लिफ्ट चढ़ते-उतरते बाज़ारवाद से अभिभूत/आत्म-मुग्ध घर लौटते हैं जैसे किसी विजयपर्व से लौटे हों। जो ऐसा नहीं कर पाते वे ऐसा कर सकें इसी के लिए जूझते-तरसते नज़र आते हैं। हम अपने कौशल/प्रवीणताओं /प्रतिभाओं में लगन और आनन्द के भाव से खाली हैं और जाने क्या-क्या फलाँग जाना चाहते हैं !हमें इसमें भी कोई रूचि अथवा जिज्ञासा नहीं कि वह कौन -सा आश्रम अथवा स्थल था जहाँ महाकवि को क्रोंच वध की वेदना से कविता सूझी थी या वह आश्रम कहाँ है जहाँ परम्परा से कण्ठस्थ चली आती ऋचाओं को पहली बार कण्व ऋषि ने लिपिबद्ध करने के महत ऐतिहासिक कार्य को संपन्न किया ! हमें ऐसे ऐतिहासिक आश्रमों की सुध भी नहीं है और हम अपने घर की सुविधाएँ और व्यवस्थित दिनचर्या की चक्कर घिन्नी छोड़कर ऐसे सुरम्य एकान्तिक स्थलों की और निकल जाने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहते । हम विचार-मंथन हेतु योगिओं-सी एकाग्रता की आवश्यकता भी महसूस नहीं करते । चौतरफा व्याप्त बाज़ारवाद और अवसरवाद से घिरे-घिरे हमें जो झट सूझता है हम पट कह डालते हैं। वह छपता भी है,बिकता भी है। भविष्य में ऐसा काव्य और भी विपुल होगा,चिन्ता की क्या बात है! हमें ज़रा भी चिंता नहीं है कि शाश्वत प्रेम को छोड़ कर हमारी सम्वेदनाओं के तार कहाँ जुड़ गए हैं !

                                                                                                                                     कैलाश नीहारिका

                                                                                                                   

Friday 4 April 2014

कबाड़ी

जिसे मैं फैंक दिया करती हूँ
कचरे की मानिन्द
कबाड़ी ढूँढ लेता है
उसी में कुछ ज़रूरी।