Thursday, 12 February 2015

खम्भों पे पुल

    2122  2122  22  1222 

   शोख़ नज़रों की पनाहों में ग़म छुपे भी हैं
    भँवर चौतरफ़ा हसरतों के अनदिखे ही हैं

   भीड़ से  हटके कहीं दिखते साथ साँझ ढले
   दरमियां उनके  कई किस्से अनकहे भी हैं  

   हौसलों  की  हर बुलन्दी  भी आसरा चाहे
   पुल बने हैं जो कहीं  खम्भों पे  उठे भी हैं

   मुस्कराते हैं छुपाकर ज़ख्म अपने अक्सर
   शाम ढलते बेसबब तन्हा  सुबकते भी हैं
 
   कौन गिनता है यहाँ लहरें शाम  होने तक   
   रेत  पर वादे लिखे उसने फिर पढ़े  भी हैं    

                        कैलाश नीहारिका

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