पहाड़ यूँ ही नहीं
घिसते, दरकते, बिखरते
तेज हवाएँ, बर्फीले प्रवाह
बिजलियों भरे तूफानी अंधड़----
इन सबको झेलते
और कभी किसी उल्कापिण्ड की
बौखलाई, बुझी चमक से भ्रमित- भौचक्क पहाड़
खोलते हैं अपनी बन्द मुट्ठियाँ
शिराओं की समस्त सनसनाहट को
झेलती मुट्ठियाँ !
पहाड़ों की खुलती मुट्ठियों से
झरते-झरते रेत
कुछ बखानती-सी उतावली
शिखर से उमड़ता जल
दौड़ता आश्वस्त करते
बढ़ता निर्बाध
सहयात्रा का खुला आमन्त्रण फहराते !
जल की यात्रा के समान्तर
रेत साथ है यायावर-सी
जाने कब से ……कब तक
शाश्वत साक्षी
यह रेत बह जाएगी दूर तक
घुल न पाएगी, निथर जाएगा जल
इसके कण-कण में नमी के किस्से होंगे
भले ही यह रेत सूख जाएगी !
कैलाश नीहारिका
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