सुनो चक्रधारी
लोकतन्त्र की अजब भ्रामक
लोकतन्त्र की अजब भ्रामक
गुहार लगाकर
किस-किस को साधोगे
एक रस्सीनाच तो नहीं यहाँ !
देखो तो यह दुराग्रह
मेरे कन्धों पर कमानियाँ कसकर
मुझे इस तन्त्र का पुर्जा बनाना
इतना अपरिहार्य क्यों है
सत्ता के इच्छुकों की कतार में नहीं हूँ मैं !
और भी ...…
मेरी मस्तिष्क- तन्त्रियों से
जोड़कर मशीनी संवेदक
मुझे निर्देश देने की हिमाकत
किसकी चक्रव्यूही बेहूदगी है ?
कड़ी-दर-कड़ी इस शिकंजे की गिरफ़्त से
ऐंठता है संवेदन-तन्त्र
और अस्थियाँ भी !
सुनो
बाज़ार के, सत्ता के पैरोकार बहुरूपियो !
निर्बाध जीविका की खातिर
या सन्तान के सुनहरे भविष्य के लिए
अथवा ढलती उम्र की
सुरक्षा तय करते
मुझे पुर्जा-दर-पुर्जा रोबोट बनाने की
देखो तो यह दुराग्रह
मेरे कन्धों पर कमानियाँ कसकर
मुझे इस तन्त्र का पुर्जा बनाना
इतना अपरिहार्य क्यों है
सत्ता के इच्छुकों की कतार में नहीं हूँ मैं !
और भी ...…
मेरी मस्तिष्क- तन्त्रियों से
जोड़कर मशीनी संवेदक
मुझे निर्देश देने की हिमाकत
किसकी चक्रव्यूही बेहूदगी है ?
कड़ी-दर-कड़ी इस शिकंजे की गिरफ़्त से
ऐंठता है संवेदन-तन्त्र
और अस्थियाँ भी !
सुनो
बाज़ार के, सत्ता के पैरोकार बहुरूपियो !
निर्बाध जीविका की खातिर
या सन्तान के सुनहरे भविष्य के लिए
अथवा ढलती उम्र की
सुरक्षा तय करते
मुझे पुर्जा-दर-पुर्जा रोबोट बनाने की
तुम्हारी कोशिश बेजा है, छोड़ो।
व्यक्ति हूँ मैं, जिसमें रूह भी है
जिसे सम्प्रदाय, जाति, लिंग, भाषा, स्थान से परे भी
बहुत कुछ झँझोड़ता है !
और वे किस कालखण्ड के
व्यक्ति हूँ मैं, जिसमें रूह भी है
जिसे सम्प्रदाय, जाति, लिंग, भाषा, स्थान से परे भी
बहुत कुछ झँझोड़ता है !
और वे किस कालखण्ड के
हमारे पुरखे थे जो
आदमी को आदमी की दवा मानते थे
अचूक ! अतुल्य !
कैलाश नीहारिका
अचूक ! अतुल्य !
कैलाश नीहारिका
बहुत ही प्रेरक। क्या बात है आपकी रचना में जो मन को भीतर तक महसूस हो गई। वाह
ReplyDeleteवाह ।
ReplyDeleteव्यक्ति हूँ मैं, जिसमें रूह भी है
ReplyDeleteजिसे सम्प्रदाय, जाति, लिंग,भाषा, स्थान से परे भी
बहुत कुछ झँझोड़ता है
सच।