Tuesday, 1 July 2014

कुहुकती कोयल और धुआँ

घुमड़ आए बादल
नाचने लगे मयूर
अवाक रह गई
दिनों से कुहकती कोयल !

ताज़ा नहाये जंगल में
पसरने लगीं
भीनी-भीनी सुरभियाँ
मुखर हो उठी चारों ओर उत्सव-धर्मिता !

झाँकती कहीं से विरल-सी कोई सूर्य-किरण
हवाओं में अटकी एक बूँद को
सहसा भर गई आलोक से
छा गई गगन में
मृदुल रंगों की एक चाप अद्भुत  ! 

इधर कहीं 
गीले ईंधन से उठता सघन धुआँ
लील गया झटपट
किसी सहज गुनगुनाहट को
कोयल की कुहुक के समान्तर
खाँसता है कोई बहुत पास !

               कैलाश नीहारिका

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