Monday 16 July 2018

मुमकिन नहीं

लिख ही डालूँ इक बहर में ज़िन्दगी मुमकिन नहीं
कैसे गाऊं एक सुर में तल्खियाँ मुमकिन नहीं

करके देखो तुम उजालों से कभी  कुछ गुफ़्तगू
रच दो बस अल्फ़ाज़ से उजली सहर मुमकिन नहीं

जब भी फसलें झेलती हैं रात पाले का कहर
कोई सूरज धूप ओढ़ा दे तभी  मुमकिन नहीं

टुकड़ा टुकड़ा काट के फैंका गया कुछ इस तरह
सारे सच को जोड़के वह शक्ल दूँ मुमकिन नहीं

मैं  तुम्हारे जश्न में आई  भरी मुट्ठी लिए
जाते-जाते पोटली-भर दर्द लूँ मुमकिन नहीं

तुम-सा तन्हा कौन है ये सोचती हूँ आह भर
ऐसी तन्हाई जिसे कुछ सौंपना मुमकिन  नहीं

         222  2212  2212  2212


                            कैलाश नीहारिका 

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