मैंने नदियाँ पार कीं
बिना जल को छुए
समझ आते-आते आई कि
जो पार किये वे मात्र पुल थे
नदी के होने की बस साक्षी रही।
फिर कभी पाया कि मिट गई नदी
पता चला वह नदी नहीं
बरसाती जल का रास्ता था
बहुत बाद में जाना
नदी बारहमासी होती है
किसी हिमनद की आत्मजा।
अब तमाम नहरों-नालों
कुओं झीलों तालाबों को देखते हुए
सूझते हैं मुझे ग्लेशियर .....
यूँ तो मैं वर्षा और ओस की भी साक्षी हूँ।
ठीक समझे हो
मैं हिम के समान्तर सोच रही थी
वाष्पीकरण को भी।
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