Tuesday 20 September 2022

जो नहीं है प्रेम

प्रेम सोचते हुए
प्रेम को जीते हुए
प्रेम में रँगा फ़कीर
तिनके-तिनके को सहेजता है झाड़ू में
कि कचरे-सा बुहार सके वह सब
जो नहीं है प्रेम ।

मैंने देखा  
सबने देखा होगा --
हर फ़कीर में रचा-बसा कोई श्रीमन्त
हाँ, वही सामन्त
जो प्रायः मुस्कराता है
जीवन की समस्त क्षुद्रताओं पर।

सोचती हूँ अक्सर
क्यों नहीं स्वीकार कर लेता फ़कीर
नैसर्गिक बहते,उमड़ते प्रेम को
प्रेम की समस्त
खर-पतवार-सी क्षुद्र उपजों के साथ ही !

देखता है एक दिन
चौंक कर फ़कीर
उम्र-भर का अपना काम
प्रेम कहीं रुक गया झील-सा
पा गया विस्तार अहम दूर-दूर तक ।

हारता नहीं फ़कीर
कहता है कभी फुसफुसाते हुए
और कभी डंके की चोट पर कि
सृष्टि में सबसे कठिन काम है
प्रेम का विस्तार !

                             -  कैलाश नीहारिका