Tuesday 23 June 2015

किरदार हम रहे



          2222 1212 22 1212                                 

वहशत का दौर देखकर  बेज़ार हम रहे
पानी में छोड़ कश्तियाँ इस पार हम रहे
 
सतरंगे ख्वाब ज़हन में गुमनाम-से बसे
 किसके ये तीर-तरकश गुनहगार हम रहे
 
 ये शज़र सदाबहार इसका राज़ क्या कहें
  तन्हा-सी एक झील का किरदार हम रहे

  जाने  बेइख्तियार आँसू  किस तरह थमे
  दरिया बहुत  पुरजोश था लाचार हम रहे

  दीवानापन कि रिंदगी हम कब समझ सके
  पुरजश्न  लहरें  लेकिन  खबरदार  हम  रहे                  
                           

                                  कैलाश नीहारिका 

Tuesday 9 June 2015

ख़ुशी सौंपी नहीं

       
रोशनी तो सब जगह पहुँची नहीं
 खोखले वादे ख़ुशी उपजी नहीं

किस तरह  नग़में  हवाओं के सुनें
सिर्फ़ तहख़ाने  वहाँ  खिड़की  नहीं

अश्क़ ठहरे ही नहीं  पलकों तले
रात तकिये से नमी फिसली नहीं

साथ उनका एक जादू-सा लगा
दूर  होते ही ख़ुशी ठहरी नहीं
 
आहटों पर चौंक जाती जुस्तजू
नींद की परियाँ वहाँ उतरी नहीं

जलजलों की खूब चर्चा थी मगर
वह इमारत आज तक दरकी नहीं

कौन करता उन हवाओं से गिला    
खुशबुएँ जिनसे कभी सँभली नहीं


 
                 

Friday 5 June 2015

बेसबब कहा होता

       122  212  1222

दरो-दीवार  सब  ढहा  होता 
कभी तो आसमां जिया होता

सँभल के यूँ नपा-तुला कहना
कभी कुछ  बेसबब कहा होता 

कहा  हँसते हुए  सरे-ख़ल्क़त 
नज़र-भर रीझ के  कहा होता

दहकती आग की तपिश झेली
घुमड़ता-सा धुआँ  सहा  होता
 
नयन की ढाल से लुढ़कता-सा
लरजता अश्क़ ही बहा होता
 
अभी ख़ारिज सही फ़िदा होना
वह कभी  मुंतज़िर  रहा  होता
 
छुपा  ही वो रहा  खुदाई में
कभी तो रूबरू  रहा होता

                 कैलाश नीहारिका  

Monday 9 March 2015

सीढ़ियाँ

किताबों को
किताबों की कतारों की तरह
देखा  सदा मैंने
पता  नहीं चला कि
कब किताबें बन गईं
सीढ़ियाँ !

                                                                              
किताबों को
किताबों की दीवारों की तरह
देखा कभी मैंने
पता चला नहीं
किताबें बन गईं कब
खिड़कियाँ !

                  कैलाश नीहारिका


Thursday 12 February 2015

खम्भों पे पुल

    2122  2122  22  1222 

   शोख़ नज़रों की पनाहों में ग़म छुपे भी हैं
    भँवर चौतरफ़ा हसरतों के अनदिखे ही हैं

   भीड़ से  हटके कहीं दिखते साथ साँझ ढले
   दरमियां उनके  कई किस्से अनकहे भी हैं  

   हौसलों  की  हर बुलन्दी  भी आसरा चाहे
   पुल बने हैं जो कहीं  खम्भों पे  उठे भी हैं

   मुस्कराते हैं छुपाकर ज़ख्म अपने अक्सर
   शाम ढलते बेसबब तन्हा  सुबकते भी हैं
 
   कौन गिनता है यहाँ लहरें शाम  होने तक   
   रेत  पर वादे लिखे उसने फिर पढ़े  भी हैं    

                        कैलाश नीहारिका