उन सबके पास
अपने-अपने प्याले हैं
शायद भरे हैं
किसी के हाथ में थमा
किसी के अधरों से सटा
और किसी का मेज़ पर
धरा है ढका ।
किसी-किसी के होंठों के कोनों से
रिसती बारीक धार
चुगली-सी करती है कि
पीना नहीं आता उनको।
जिनके होंठों से कभी नहीं रिसता तरल
वे पीने में पारंगत हैं
या शायद उनका प्याला ही खाली हो !
जो भी हो
यह निजता का मुद्दा है ।
थामा है कौशल से मैंने अपना प्याला
अधरों से सटा रखा है
रिसता नहीं तरल
सोचते होंगे वे -- आता है इसे पीना
या खाली भी हो सकता है प्याला !
- कैलाश नीहारिका
वाह। बहुत सुंदर।
ReplyDeletesundar rachna please read me also http://againindian.blogspot.com/
ReplyDelete....बेहतरीन रचना .
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