समझने लगी हूँ अब
जो उड़ गया वह पक्षी था
जो बंद रहा मुट्ठी में वह दाना।
जो उड़ गया वह पक्षी था
जो बंद रहा मुट्ठी में वह दाना।
चढ़ते-चढ़ते जो लौटने लगी
वह धूप थी
जो दर्ज हो गया कहीं, दिनांक था।
वह धूप थी
जो दर्ज हो गया कहीं, दिनांक था।
जो साथ रहा 'मैं ' था
जो अलग हुआ ' तुम '
जो अलग हुआ ' तुम '
जो सध न सका, 'हम ' था
वह लापता था जो अंतरलीन था।
बस निकल लूँ इस अँधेरे से
कन्दरा के पार है प्रकाश
तन गई हैं मुट्ठियाँ
मुट्ठियों में धड़कती है
पुलक भरी आस !
सुन्दर सृजन।
ReplyDelete🙏
Deleteबहुत भावपूर्ण सृजन कैलाश जी | पुलक भरी आस लेकर ही संसार एक एक पग आगे बढाता है | सादर हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteधन्यवाद आपका 😊
Deleteबहुत अच्छे रचना है सहज शब्दों में सच अभिव्यक्त करती हुई |
ReplyDeleteआभार सिन्हा जी।
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