Friday, 25 January 2019

छतरियाँ थामे

          212  22  122  212   221

छतरियां थामे चले वे माँगते बरसात
मैं चली शबनम सहेजे साथ में आकाश

धूप ने मुट्ठी भरी सौंपे शज़र को रंग
मंच पर कब तक सुनाती ज़िंदगी संवाद

खोजकर पाताल-भर रचते कहीं तो झील
राह में  अन्धा कुआँ किस तरह सीँचूँ आस            

क्यों तिज़ारत घोल देते चाहतों के संग   
रंग  कुदरत के सहेजूँ  और खेलूँ  फाग

वे परिन्दों को बुलाकर निरखते परवाज़
पर मुझे उनका चहकना सौंपता इक नाद

वह समन्दर या कि सहरा सिरजता हो रास
लहरियाँ बस प्रेम की जी को करें आबाद
       
 कैलाश नीहारिका

8 comments:

  1. सुंदर रचना आदरणीय कैलाश निहारीका जी।

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  2. नमस्कार. आपका स्वागत और धन्यवाद.

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  3. प्रेम की सघन अनुभूति की अद्भुत अभिव्यक्ति।

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  4. सुंदर प्रस्तुति ।

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  5. रचना की पसंदगी और तारीफ़ ज़ाहिर करने के लिए आप सब साथियों का बहुत शुक्रिया !

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  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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