212 22 122 212 221
छतरियां थामे चले वे माँगते बरसात
मैं चली शबनम सहेजे साथ में आकाश
धूप ने मुट्ठी भरी सौंपे शज़र को रंग
मंच पर कब तक सुनाती ज़िंदगी संवाद
खोजकर पाताल-भर रचते कहीं तो झील
राह में अन्धा कुआँ किस तरह सीँचूँ आस
क्यों तिज़ारत घोल देते चाहतों के संग
रंग कुदरत के सहेजूँ और खेलूँ फाग
वे परिन्दों को बुलाकर निरखते परवाज़
पर मुझे उनका चहकना सौंपता इक नाद
वह समन्दर या कि सहरा सिरजता हो रास
लहरियाँ बस प्रेम की जी को करें आबाद
कैलाश नीहारिका
छतरियां थामे चले वे माँगते बरसात
मैं चली शबनम सहेजे साथ में आकाश
धूप ने मुट्ठी भरी सौंपे शज़र को रंग
मंच पर कब तक सुनाती ज़िंदगी संवाद
खोजकर पाताल-भर रचते कहीं तो झील
राह में अन्धा कुआँ किस तरह सीँचूँ आस
क्यों तिज़ारत घोल देते चाहतों के संग
रंग कुदरत के सहेजूँ और खेलूँ फाग
वे परिन्दों को बुलाकर निरखते परवाज़
पर मुझे उनका चहकना सौंपता इक नाद
वह समन्दर या कि सहरा सिरजता हो रास
लहरियाँ बस प्रेम की जी को करें आबाद
कैलाश नीहारिका
सुंदर रचना आदरणीय कैलाश निहारीका जी।
ReplyDeleteनमस्कार. आपका स्वागत और धन्यवाद.
ReplyDeleteप्रेम की सघन अनुभूति की अद्भुत अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत खूब.... आदरणीया
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteरचना की पसंदगी और तारीफ़ ज़ाहिर करने के लिए आप सब साथियों का बहुत शुक्रिया !
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
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