1222 2122 2212 22
फिर कभी पुरजश्न चाहत का सिलसिला देखा
नमी कैसे तो सुलगती है आग होने तक
धुआँ-सा घायल निगाहों में बारहा देखा
धुआँ-सा घायल निगाहों में बारहा देखा
कहीं आकाशी उजालों की अधखुली चिलमन
उसी आँगन में उमड़ता-सा कोहरा देखा
चटखता गुंचा घडी-भर को मुस्कराता है
उसी शिद्दत में महकने का फलसफ़ा देखा
उसी शिद्दत में महकने का फलसफ़ा देखा
महज़ हसरत को इरादे का नाम हैं देते हैं
कहाँ अनचाही हक़ीक़त का ज़लज़ला देखा
कैलाश नीहारिका
( कथादेश में प्रकाशित )
कहाँ अनचाही हक़ीक़त का ज़लज़ला देखा
कैलाश नीहारिका
( कथादेश में प्रकाशित )
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