Friday, 2 March 2012

कभी गौतम की निगाहों से




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कभी  गौतम  की  निगाहों से  हादसा देखा
फिर कभी पुरजश्न चाहत का सिलसिला देखा
 
नमी  कैसे तो सुलगती है आग होने तक  
धुआँ-सा घायल निगाहों में  बारहा देखा
 
कहीं आकाशी उजालों की अधखुली चिलमन
उसी आँगन में उमड़ता-सा  कोहरा देखा
 
चटखता गुंचा घडी-भर को मुस्कराता है                
उसी शिद्दत में महकने का फलसफ़ा देखा
 
महज़ हसरत को इरादे  का नाम हैं देते हैं
कहाँ अनचाही हक़ीक़त का ज़लज़ला देखा

                     कैलाश  नीहारिका
                 ( कथादेश  में प्रकाशित )       

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