212 222 212 212
गीत हरियाली के गुनगुनाते हुए
बस गई बस्ती पत्थर जुटाते हुए
खूब चर्चा थी पुरजश्न परवाज़ की
इक परिन्दे को बंदी बनाते हुए
खो गए कितने अनमोल पल बेवजह
तीरगी से मुरव्वत निभाते हुए
नेक इन्सां की पुरनूर तहज़ीब को
बारहा देखा मातम मनाते हुए
वे उजालों से कब रूबरू हो सके
नूर के किस्से सुनते-सुनाते हुए
कैलाश नीहारिका
( शिक्षायण पत्रिका में प्रकाशित )
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