माँ
माँ अब
अधीर होकर
तर्जनी नहीं तानती
रुकते-रुकते सोचकर बोलती है ।
वह जान ही नहीं
पाई
कब देह, गेह और स्नेह की पकड़
ढीली होते-होते उससे छूट गई !
उसकी क्षीण अंगुलियाँ
दुआओं का
हिण्डोला झुलातीं-सी
मानो झुठलातीं हैं
वाष्पित सत्य को
जो शाश्वत उपस्थित है ।
आसक्तियों के इस जंगल में
मेरी स्वीकारोक्ति गूँजती रहेगी कि ----
माँ, तुम्हारे ही छोटे-बड़े सरोकारों ने
उदासियों की गहरी खन्दकों से
मेरी तरल मुस्कान को
बार-बार उबारा
सुदूर वयस तक ।
मुझमें रची-बसी अनूठी श्रद्धा
तुम्हारी ही भरपूर दुआओं का
आस्वादन
पाकर पनपी है ।
मेरे जीवन की अबूझ सुर से
तुम अनुपस्थित नहीं हो माँ !