2122 2222 12
सुर्ख़ आँखों से जब रोती ग़ज़ल
राग सब ऋतुओं में बोती ग़ज़ल
जब पसीना बहते-बहते थमे
छाँव देती खुशबू होती ग़ज़ल
रीत जाते यूँ ही बादल घने
आह-भर खालीपन ढोती ग़ज़ल
सोख लेती बहकी बेताबियाँ
अश्क़-भर हँसके जब रोती ग़ज़ल
रात ने जाने क्या उससे कहा
रात-भर काजल-सा धोती ग़ज़ल
रोज़नामें में लिखते फब्तियाँ
यह न होती तो वह होती ग़ज़ल
कैलाश नीहारिका
सुर्ख़ आँखों से जब रोती ग़ज़ल
राग सब ऋतुओं में बोती ग़ज़ल
जब पसीना बहते-बहते थमे
छाँव देती खुशबू होती ग़ज़ल
रीत जाते यूँ ही बादल घने
आह-भर खालीपन ढोती ग़ज़ल
सोख लेती बहकी बेताबियाँ
अश्क़-भर हँसके जब रोती ग़ज़ल
रात ने जाने क्या उससे कहा
रात-भर काजल-सा धोती ग़ज़ल
रोज़नामें में लिखते फब्तियाँ
यह न होती तो वह होती ग़ज़ल
कैलाश नीहारिका
ब्लॉग बुलेटिन पर मेरी ग़ज़ल का लिंक देने के लिए बहुत शुक्रिया शिवम् जी ।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया जोशी जी ।
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