Thursday, 19 July 2018

अधरची-सी बहर में


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बेज़ार शामो सहर में
क्या दिल लगाते शहर में

वह उम्र-भर की दिल्लगी
जैसे बुझी  हो ज़हर में

पुरनम सुरीला दर्द था
इक अधरची-सी बहर में

फिर अधबुझी-सी प्यास थी
उस मछलियों के शहर में

झरते नहीं वे दर्द अब
रच-बस गए जो लहर में

वह ज़िन्दगी भर का जुनूं
अब रंग लाया दहर में

                        कैलाश नीहारिका



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