Monday, 25 July 2016

प्रेम से दूर

मैं-मैं की टेर लिए
सहचरों के बीच भी
पाखी अकेला
सह नहीं पाता
प्रेम की उपस्थिति
प्रेम का विस्तार
सहसा उड़ जाएगा किसी दिन
प्रेम की अडोल नम्यता से
घृणा करते-करते !

                      कैलाश नीहारिका

Tuesday, 19 July 2016

परिक्रमा से बाहर



दिलेर क्या दुराग्रही वे
जा नहीं पाये कभी
धर्मोन्माद की परिधि से बाहर !
अबूझे रास्तों के
अज्ञात मोड़ों से आशंकित
घूमते ही रहेंगे गोल-गोल
चक्रव्यूह को पुष्ट करते-से  !

धड़कनें सहेजते हैं थमकर
परिक्रमा से बाहर होने की
आशंका-भर से
काँप उठते हैं कहीं भीतर 
जीने-भर का ही इंगित नहीं स्पन्दन
मरते हुए भी जिजीविषा को
ओढ़ लेता है कम्पन !

                        
कैलाश नीहारिका 

Thursday, 5 May 2016

संचित विष

दंश की  सम्भावनाओं को
कुचला मसला
कर दिया निर्मूल
फिर भी 
बच नहीं पाए
विष से
खदबदाता था जो भीतर
चिरपोषित
अमूल्य धरोहर-सा संचित !

                        कैलाश नीहारिका