Thursday, 19 July 2018

अधरची-सी बहर में


   221  22  212

बेज़ार शामो सहर में
क्या दिल लगाते शहर में

वह उम्र-भर की दिल्लगी
जैसे बुझी  हो ज़हर में

पुरनम सुरीला दर्द था
इक अधरची-सी बहर में

फिर अधबुझी-सी प्यास थी
उस मछलियों के शहर में

झरते नहीं वे दर्द अब
रच-बस गए जो लहर में

वह ज़िन्दगी भर का जुनूं
अब रंग लाया दहर में

                        कैलाश नीहारिका



Monday, 16 July 2018

मुमकिन नहीं

लिख ही डालूँ इक बहर में ज़िन्दगी मुमकिन नहीं
कैसे गाऊं एक सुर में तल्खियाँ मुमकिन नहीं

करके देखो तुम उजालों से कभी  कुछ गुफ़्तगू
रच दो बस अल्फ़ाज़ से उजली सहर मुमकिन नहीं

जब भी फसलें झेलती हैं रात पाले का कहर
कोई सूरज धूप ओढ़ा दे तभी  मुमकिन नहीं

टुकड़ा टुकड़ा काट के फैंका गया कुछ इस तरह
सारे सच को जोड़के वह शक्ल दूँ मुमकिन नहीं

मैं  तुम्हारे जश्न में आई  भरी मुट्ठी लिए
जाते-जाते पोटली-भर दर्द लूँ मुमकिन नहीं

तुम-सा तन्हा कौन है ये सोचती हूँ आह भर
ऐसी तन्हाई जिसे कुछ सौंपना मुमकिन  नहीं

         222  2212  2212  2212


                            कैलाश नीहारिका 

Thursday, 12 July 2018

मृग मरीचिका



उस सूखती नदी के रेतीले तट पर
 नहीं डूबी मैं
रेत में भला कोई डूबता है
फिर भी  डूब ही तो गई
उस घनी चमकती रेत से उपजी
मृग मरीचिका में !

                         कैलाश नीहारिका 

Monday, 9 July 2018

राग बोती ग़ज़ल

  2122 2222 12

सुर्ख़ आँखों से जब रोती ग़ज़ल
राग सब ऋतुओं में बोती ग़ज़ल

जब पसीना बहते-बहते थमे
छाँव देती खुशबू होती ग़ज़ल

रीत जाते यूँ ही बादल घने
आह-भर खालीपन ढोती ग़ज़ल

सोख  लेती बहकी बेताबियाँ
अश्क़-भर हँसके जब रोती ग़ज़ल

रात ने  जाने क्या उससे कहा
रात-भर काजल-सा धोती ग़ज़ल

रोज़नामें में लिखते फब्तियाँ
यह न होती तो वह होती ग़ज़ल
                     
                                    कैलाश नीहारिका