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बेज़ार शामो सहर में
क्या दिल लगाते शहर में
वह उम्र-भर की दिल्लगी
जैसे बुझी हो ज़हर में
पुरनम सुरीला दर्द था
इक अधरची-सी बहर में
फिर अधबुझी-सी प्यास थी
उस मछलियों के शहर में
झरते नहीं वे दर्द अब
रच-बस गए जो लहर में
वह ज़िन्दगी भर का जुनूं
अब रंग लाया दहर में
कैलाश नीहारिका