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Sunday, 6 September 2020

पुलक भरी आस


समझने लगी हूँ अब
जो उड़ गया वह पक्षी था
जो बंद रहा मुट्ठी में वह दाना। 
 
चढ़ते-चढ़ते जो लौटने लगी
वह धूप थी
जो दर्ज हो गया कहीं, दिनांक था।

जो साथ रहा 'मैं ' था
जो अलग हुआ ' तुम '
जो सध न सका, 'हम ' था 
वह लापता था जो अंतरलीन था।

बस निकल लूँ इस अँधेरे से
कन्दरा के पार है प्रकाश
तन गई हैं मुट्ठियाँ
मुट्ठियों में धड़कती है
पुलक भरी आस !

6 comments:

  1. बहुत भावपूर्ण सृजन कैलाश जी | पुलक भरी आस लेकर ही संसार एक एक पग आगे बढाता है | सादर हार्दिक शुभकामनाएं|

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  2. बहुत अच्छे रचना है सहज शब्दों में सच अभिव्यक्त करती हुई |

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