गुरु ने समझाया --
किसी पर रीझकर मत गढ़ना
कर्म बन्धन नये
मेरी उलझन थी कि
भरी जो रीझ भीतर कूट-कूट कर
उसका क्या !
विरक्त पीड़ा से भर कह उठे वे --
तुम नहीं चाहते पुल से नदी को पार करना
मोहभंग की नदी में उतरकर ही मानोगे !
--कैलाश नीहारिका
कविता एक ऐसी उपज है जिसकी जड़ें गहरी हैं . कविता के शब्दों से ही अर्थ नहीं झरते,उसके शब्द जिस 'स्पेस' से आवरण युक्त होते हैं, वह 'स्पेस' भी कविता कहता है.कविता को समझने के लिए उसके 'स्पेस ' का मर्म समझना ज़रूरी है . मर्मज्ञ ही हो सकता है कविता का पाठक ! कविता एक दर्द है / हम जो हैं / उससे जुदा होने का दर्द / कविता है _ कैलाश नीहारिका
Pages
Wednesday, 19 October 2022
नदी को पार करना
कोई बात करो
सौदागर नहीं थे
Tuesday, 20 September 2022
जो नहीं है प्रेम
प्रेम सोचते हुए
प्रेम को जीते हुए
प्रेम में रँगा फ़कीर
तिनके-तिनके को सहेजता है झाड़ू में
कि कचरे-सा बुहार सके वह सब
जो नहीं है प्रेम ।
मैंने देखा
सबने देखा होगा --
हर फ़कीर में रचा-बसा कोई श्रीमन्त
हाँ, वही सामन्त
जो प्रायः मुस्कराता है
जीवन की समस्त क्षुद्रताओं पर।
सोचती हूँ अक्सर
क्यों नहीं स्वीकार कर लेता फ़कीर
नैसर्गिक बहते,उमड़ते प्रेम को
प्रेम की समस्त
खर-पतवार-सी क्षुद्र उपजों के साथ ही !
देखता है एक दिन
चौंक कर फ़कीर
उम्र-भर का अपना काम
प्रेम कहीं रुक गया झील-सा
पा गया विस्तार अहम दूर-दूर तक ।
हारता नहीं फ़कीर
कहता है कभी फुसफुसाते हुए
और कभी डंके की चोट पर कि
सृष्टि में सबसे कठिन काम है
प्रेम का विस्तार !
- कैलाश नीहारिका
Sunday, 24 July 2022
पेंच
मैंने सदा चाहा
तुम्हारा प्रेमपूर्ण होना
जबकि मेरा प्रेमपूर्ण होना
दशकों से छीज रहा है
बस
यहीं सारा पेंच अड़ा है ।
मैं का विसर्जन करते हुए
मैं पुनर्नवा होने की
कोशिश में हूँ।
बूँद बूँद शब्द
शब्दों में
कहाँ समाती है
कविता !
झरते -झरते
निथर जाओगे
एक दिन !
हाशिये से
ख़ारिज होंगे
बेज़ुबान लोग
- कैलाश नीहारिका
Thursday, 23 June 2022
नदी का होना
मैंने नदियाँ पार कीं
बिना जल को छुए
समझ आते-आते आई कि
जो पार किये वे मात्र पुल थे
नदी के होने की बस साक्षी रही।
फिर कभी पाया कि मिट गई नदी
पता चला वह नदी नहीं
बरसाती जल का रास्ता था
बहुत बाद में जाना
नदी बारहमासी होती है
किसी हिमनद की आत्मजा।
अब तमाम नहरों-नालों
कुओं झीलों तालाबों को देखते हुए
सूझते हैं मुझे ग्लेशियर .....
यूँ तो मैं वर्षा और ओस की भी साक्षी हूँ।
ठीक समझे हो
मैं हिम के समान्तर सोच रही थी
वाष्पीकरण को भी।
Monday, 20 June 2022
बन्द खाली मुट्ठियाँ
मुस्कान के विलुप्त होने का रहस्य
तुम्हें भींच सकने को !
कैलाश नीहारिका