बात करते-करते
संग-सम्बन्धों के विमर्श पर
अनमने-से मौन ओढ़ लेते हो
किसको ज्ञात नहीं कि
बन्द मुट्ठियों में
आसक्तियों के कसे-सटे रेशे
सदा एक-से नहीं रहते ।
तत्पर हथेलियाँ
सदा एक-से नहीं रहते ।
तत्पर हथेलियाँ
यूँ ही नहीं थाम लेतीं
आगे बढ़े हाथ को ।
मन की तहों में दबा रखे
अदिखे अबूझ रहस्य
ऐसे ही रेशमी फिसलन-से
औचक नहीं खुल जाते ।
दृष्टि स्वर स्पर्श में टेरती कशिश
बेवजह नहीं होती।
जंगल में नाचने से पहले मोर
अकारण ही आकुल होकर
नहीं जोहता
सहचर का अखुट्ट भरोसा ।
यात्रा कोई
सहचर का अखुट्ट भरोसा ।
यात्रा कोई
बिना किसी पृष्ठभूमि के
अधर से शुरू नहीं होती
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteशुक्रिया सुशील जी !
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