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Sunday, 7 January 2018

तत्पर हथेलियाँ


बात करते-करते
संग-सम्बन्धों के विमर्श पर  
अनमने-से मौन ओढ़ लेते हो
किसको ज्ञात नहीं कि 
बन्द मुट्ठियों में
आसक्तियों के कसे-सटे रेशे
सदा एक-से नहीं रहते ।

तत्पर हथेलियाँ
यूँ ही नहीं थाम लेतीं
आगे बढ़े हाथ को ।
मन की तहों में दबा रखे
अदिखे अबूझ रहस्य
ऐसे ही रेशमी फिसलन-से
औचक नहीं खुल जाते ।
दृष्टि स्वर स्पर्श में 
टेरती कशिश 
बेवजह नहीं होती।
 
जंगल में नाचने से पहले मोर
अकारण ही आकुल होकर 
नहीं जोहता
सहचर का अखुट्ट भरोसा ।

यात्रा कोई
बिना किसी पृष्ठभूमि के 
अधर से शुरू नहीं होती 
सोचो तो, ऐसा भी जटिल नहीं
पाँव और डगर के सम्बन्धों की टोह लेना।

                    कैलाश नीहारिका 




                             
      

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