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Monday, 11 December 2017

कौन साथी है

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आज बेग़र्ज़ कौन साथी है
धर्म की बात ही लजाती है

नफरतों के उजाड़ जंगल में
प्रेम की पौध सूख जाती है

हौसलों में बहुत दरारें हैं          
ईंट-दर-ईंट थरथराती है
 
दूर तट से उछल गिरी बूँदें 
कब लहर लौटकर बुलाती है

रात बीते अजीब सपनों में 
फिर हक़ीकत सुबह जगाती है

बाँचती रह गईं थकी आँखें 
अश्क़ में पीर कसमसाती है 

          कैलाश नीहारिका 

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