1222 1222 122 222
पिलाता है ज़हर सुकरात को दरबार यहाँ
कैलाश नीहारिका
कहीं तो जोश-भर नारे लगाए जाते हैं
कहीं खामोश फैसले सुनाए जाते हैं
कहीं खामोश फैसले सुनाए जाते हैं
पिलाता है ज़हर सुकरात को दरबार यहाँ
मसीहा आज भी सूली चढ़ाए जाते हैं
मयस्सर ही नहीं थे जो फ़रेबी ऑंखों को
जनाज़े पर वही ऑंसू बहाए जाते हैं
बहुत बेसब्र घड़ियाँ हिज्र की काटे न कटें
कभी फिर वस्ल से दामन बचाए जाते हैं
फ़ना के बाद जाने क्या वहाँ अंजाम हुआ
यहाँ पर आँख-भर दरिया सुखाए जाते हैं
कैलाश नीहारिका
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