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Friday, 20 December 2013

खामोश फैसले

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कहीं तो जोश-भर नारे लगाए जाते हैं     
 कहीं खामोश फैसले सुनाए जाते हैं  

पिलाता है ज़हर सुकरात को दरबार यहाँ 
मसीहा आज भी सूली चढ़ाए जाते हैं

मयस्सर ही नहीं थे जो फ़रेबी ऑंखों को       
जनाज़े पर वही ऑंसू बहा जाते हैं

बहुत बेसब्र घड़ियाँ हिज्र की काटे  कटें 
कभी फिर वस्ल से दामन बचाए जाते हैं

फ़ना के बाद जाने क्या वहाँ अंजाम हुआ
यहाँ पर आँख-भर दरिया सुखाए जाते हैं
       
                          कैलाश नीहारिका

       

रू-ब-रू हो कोई

रूबरू  हो कोई  पर साथ न  हो
बंद खामोशी हो कुछ बात  न  हो

वस्ल की शामें  सब तन्हा- तन्हा
अश्क घिर आएँ पर बरसात न हो

उस  सहारे  की भी तारीफ़  करूँ 
सिर कभी कंधा या फिर हाथ न हो

ख़ास  अफ़साना भी  बेजान लगे
बेसबब जज़्बे की जो  बात न हो

 ज़िन्दगी  जैसे  उलझी साँस कहीं
 इक विरासत हो जो सौगात न हो

      
                     कैलाश नीहारिका

 (नया ज्ञानोदय  के उत्सव  विशेषांक , अक्तूबर,2014 में प्रकाशित ) 

Saturday, 14 December 2013

तेरा ख़याल


जिस तरह सबसे जोड़ देता मुझे तेरा ख़याल                    
बारहा करता फिर अलहदा मुझे तेरा ख़याल

आहटों का भी मुंतज़िर हो कभी सारा वज़ूद
 किस नफ़ासत से थाम लेता मुझे तेरा ख़याल

खास बरसाती बादलों की धमक-सा आबशार  
 घेरता कुहरे-सा घुमड़ता मुझे तेरा ख़याल 

ठूँठ पर देखा कोंपलों का निकलना लाजवाब    
यूँ करिश्मा कोई दिखाता मुझे तेरा ख़याल

क्यों हवाओं में घोलती है सदा कोयल मिठास
इक गुलिस्ताँ-सा रोज़ रचता  मुझे तेरा ख़याल                        
     
    212  22  212  212  22  121
                       
                          कैलाश नीहारिका