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Tuesday, 25 April 2023

माँ

 माँ

 

 माँ अब

अधीर होकर

तर्जनी नहीं तानती

रुकते-रुकते सोचकर बोलती है ।

वह जान ही नहीं पाई

कब देह, गेह और स्नेह की पकड़

ढीली होते-होते उससे छूट गई !

उसकी क्षीण अंगुलियाँ 

दुआओं का हिण्डोला झुलातीं-सी

मानो झुठलातीं हैं 

वाष्पित सत्य को  

जो शाश्वत उपस्थित है ।

 

आसक्तियों के इस जंगल में

मेरी स्वीकारोक्ति गूँजती रहेगी कि ----

माँ, तुम्हारे ही छोटे-बड़े सरोकारों ने 

उदासियों की गहरी खन्दकों से 

मेरी तरल मुस्कान को

बार-बार उबारा

सुदूर वयस तक ।

 

मुझमें रची-बसी अनूठी श्रद्धा

तुम्हारी ही भरपूर दुआओं का

आस्वादन पाकर पनपी है ।

मेरे जीवन की अबूझ सुर से 

तुम अनुपस्थित नहीं हो  माँ  !

 

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