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Wednesday, 19 October 2022

नदी को पार करना


गुरु ने समझाया --
किसी पर रीझकर मत गढ़ना
कर्म बन्धन नये
मेरी उलझन थी कि
भरी जो रीझ भीतर कूट-कूट कर
उसका क्या !
विरक्त पीड़ा से भर कह उठे वे --
तुम नहीं चाहते पुल से नदी को पार करना
मोहभंग की नदी में उतरकर ही मानोगे !

                                   --कैलाश नीहारिका

कोई बात करो

 

कोई बात करो
जो मरहम हो
अनदिखे ज़ख्मों के दौर में ।
 
कोई बात करो
जो वाणी दे
विवश मौन के दौर में ।
 
कोई बात करो
जो आस किरण हो
अन्धे न्याय के दौर में !
 
कोई बात करो
जो थाम ले कसकर
निर्मम अलगाव के दौर में।
 
कोई बात करो 
कि मिल बैठें 
इस भाग-दौड़ के दौर में। 
 
            - कैलाश नीहारिका

सौदागर नहीं थे

सौदाई बने जो सौदागर नहीं थे
शैदाई सही वे पेशावर नहीं थे

जो सच में सिरजते थे उम्दा विरासत
वे बेघर मुसाफिर जोरावर नहीं थे

मामूली रहा जिनका होना यहाँ पर 
वे मज़बूर सनकी कद्दावर नहीं थे

उन्हें भी किसी से मोहब्बत हुई थी
वे अपनी बला के चारागर नहीं थे

कोई क्या समझता नादानी भरी जिद
वे जश्ने चमन के दीदावर नहीं थे
 
                      -- कैलाश नीहारिका

 

पायदानों पर रुकी

 

पायदानों पर रुकी अटकी ग़ज़ल
शोख कंधों पर झुकी लटकी ग़ज़ल

तुम हवाले दे रहे हो खूब पर
आप अपनी बात से हटती ग़ज़ल

रोज़ सपने टालती-सी नींद है
जागने के पाठ को रटती  ग़ज़ल

कुन्द होकर मिट गईं जब तल्खियाँ
ज़िन्दगी की सान क्या चढ़ती ग़ज़ल

आज तक हासिल हुईं रुसवाइयाँ 
 किसलिए दिन रात यूँ खटती ग़ज़ल
                   
                    -- कैलाश नीहारिका