2122 2122 1212 212
हम दरख्तों के परिन्दे यहॉं बुलाए हुए
पत्तियों की खुशनुमा साँस के लुभाए हुए
आँधियों का ज़िक्र करना अभी मुनासिब नहीं
अब चहकने दो हमें आसमां उठाए हुए
हम घटाओं का पता पूछने निकल तो गए
आग का गोला चला साथ खार खाए हुए
आस इतनी तो रहे लौटकर कभी फिर मिलें
सौंपने होंगे कई खास पल कमाए हुए
रोज़ ही ताज़ा करेंगे उड़ान की बतकही
काश फिर बरसे घटा दिन हुए नहाए हुए
वे महकते-से शज़र वापसी मुक़र्रर कहें
लौट आना नीड़ की चाहतें बचाए हुए
कैलाश नीहारिका
हम दरख्तों के परिन्दे यहॉं बुलाए हुए
पत्तियों की खुशनुमा साँस के लुभाए हुए
आँधियों का ज़िक्र करना अभी मुनासिब नहीं
अब चहकने दो हमें आसमां उठाए हुए
हम घटाओं का पता पूछने निकल तो गए
आग का गोला चला साथ खार खाए हुए
सौंपने होंगे कई खास पल कमाए हुए
रोज़ ही ताज़ा करेंगे उड़ान की बतकही
काश फिर बरसे घटा दिन हुए नहाए हुए
वे महकते-से शज़र वापसी मुक़र्रर कहें
लौट आना नीड़ की चाहतें बचाए हुए
कैलाश नीहारिका
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/10/2018 की बुलेटिन, ग़ज़ल सम्राट स्व॰ जगजीत सिंह साहब की ७ वीं पुण्यतिथि “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteग़ज़ल गायकी के श्रेष्ठ रत्न जगजीत सिंह को सादर नमन.
ReplyDeleteमेरी ग़ज़ल को इसमें शामिल करने का स्वागत है। आपका आभार।
वाह वाह वाह
ReplyDeleteब्लॉग पर ऐसी गजल पढने को नहीं मिलती...
पधारियेगा हद पार इश्क