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Wednesday, 10 October 2018

दरख्तों के परिन्दे

    2122  2122  1212  212

हम दरख्तों के परिन्दे यहॉं  बुलाए हुए
पत्तियों की खुशनुमा साँस के लुभाए हुए

आँधियों का ज़िक्र करना अभी मुनासिब नहीं
 अब चहकने दो हमें आसमां उठाए हुए

हम घटाओं का पता पूछने निकल तो गए
आग का गोला चला साथ खार खाए हुए

आस इतनी तो रहे लौटकर कभी फिर मिलें
सौंपने होंगे कई खास पल कमाए हुए

रोज़ ही ताज़ा करेंगे उड़ान की बतकही
काश फिर बरसे घटा दिन हुए नहाए हुए

वे महकते-से शज़र वापसी मुक़र्रर कहें
लौट आना  नीड़ की चाहतें बचाए हुए

                                      कैलाश नीहारिका