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Friday, 3 May 2013

वक़्त की मेज़ पर


           212   212  221  212  212

वक़्त की मेज़  पर अखबार-से बदलते नहीं
अक्स उनके समय की धार से विगलते नहीं

ओज की बानगी केवल बयान में ही नहीं
ताप सहते हुए  वे मोम से पिघलते नहीं
                     
चौतरफ़ आँधियां आएं कि आग बरसे हवा 
पुरनमी पेड़ वे पुख्ता वज़ूद हिलते नहीं
 
यूँ समन्दर किनारे सीप की ग़ज़ब  बेखुदी   
वह सिरजती गुहर जो बूँद-से उछलते नहीं

 आँख की बेबसी  रुख़सत भरी नज़र में दिखी 
  क़ैद सब अश्क हैं, आज़ाद हो निकलते नहीं

 
                       कैलाश नीहारिका